औसत होना...
मैं इतनी औसत क्यों हूं?
जिंदगी में बचपन से मेरी खुद से यही लड़ाई रही है कि मैं इतनी औसत क्यों हूं?
यह लिखने से पहले मैं मुझसे बेहद प्यार करने वालों की शुक्रगुजार भी हूं और उनसे माफी भी मांगना चाहती हूं अगर कुछ ऐसा लिख दूं जो उन्हें बुरा लगे, यह केवल मेरी सच्चाई है…
बचपन में एक बार मेरी एक टीचर ने मुझसे कहा था,
"तुम्हारा भाई स्कूल में टॉप करता है, तुम्हारी मां यहां पढ़ाती हैं, तुम्हारे पापा को सब जानते हैं, इतने बड़े पत्रकार हैं। सब इतने अच्छे हैं... लेकिन तुम क्यों नहीं हो उनके जैसी, जबकि तुम भी तो उसी परिवार की हो?"
उस वक्त मैं चुप रह गई थी। तब नहीं पता था इसका क्या जवाब हो सकता है... शायद आज भी नहीं जानती।
मैं बचपन में अपने औसत होने से इतनी बार लड़ी कि एक वक़्त आया जब मैंने उस लड़ाई को छोड़ दिया। मुझे लगा कि औसत होना ही मेरी सच्चाई है और इसमें कोई बुराई नहीं है। कोई भी औसत हो सकता है।
शुरुआत में मैं पढ़ाई में औसत थी। फिर बाद में जाना कि मैं दिखने में भी औसत ही हूं।
मैं ज्यादा लंबी नहीं हो सकी।
स्कूल के आख़िरी दिनों में, जब लगभग हर लड़की के लिए कोई न कोई लड़का होता था—जो उसे पसंद करता था, भले वह लड़की उसे भाव दे या नहीं—
मेरे साथ ऐसा कभी नहीं हुआ।
लड़के मेरे साथ बहुत इज्जत से पेश आते, लेकिन कभी किसी ने नहीं कहा कि उसे मुझसे लगाव या प्यार हुआ है
।
तब मुझे लगने लगा कि शायद मैं इतनी साधारण हूं कि कोई मेरे करीब आना ही नहीं चाहेगा।
मैंने उस सच्चाई को भी स्वीकार कर लिया।
मैंने मान लिया कि अगर कोई आएगा भी, तो सिर्फ मेरे शरीर के लिए आएगा।
और मैं अपने शरीर का सौदा नहीं करना चाहती थी।
तो मैंने अपने आसपास किसी को आने ही नहीं दिया।
कॉलेज भी निकल गया।
मैं अपने "औसत होने" की सच्चाई या भ्रम (जो भी कह लो) में जीती रही।
मां आज भी कहती हैं—
"तुम इतनी तेज थी, अगर थोड़ी और मेहनत करती, तो तुम भी टॉप करती… सरकारी नौकरी में होती।"
पर मैं आज भी सरकारी नौकरी/नौकरी नहीं करना चाहती।
हाँ, मैं ऐसा काम चाहती हूं जिससे अच्छे पैसे आएं। लेकिन वह भी मुझे नहीं मिला।
मैं सिनेमा बनाना चाहती हूं।
करीब दो साल हो गए हैं, एक फिल्म बना रही हूं।
लेकिन अब तक खत्म नहीं कर पाई हूं।
कभी पैसे नहीं होते, कभी कोई राह नहीं दिखती।
मुझे लगता है—
"शायद मेरा आइडिया भी इतना औसत है कि इसे कोई क्यों देखेगा?"
मेरे जीवन में कोई इंसान नहीं है।
और इसमें भी मेरे औसत होने का बहुत बड़ा किरदार है।
एक बार कोई मेरे जीवन में बहुत करीब आया।
आते ही उसने कह दिया—
"मुझसे कोई उम्मीद मत रखना।"
और मैंने नहीं रखी।
पर वह इंसान कभी जाता, कभी लौट आता।
और मैं चाह कर भी खुद को उससे जुड़ने से रोक नहीं पाई।
यहां मैंने वो सब किया जो पहले कभी नहीं किया था।
मैंने सौ प्रतिशत कोशिश की,
अपनी पूरी जौर-आजमाइश लगा दी,
जो भी मेरे पास था, उसे दे देना चाहा।
किसी ने मुझसे यह सब मांगा नहीं था,
पर जब किसी का “ना जाना” भी एक उम्मीद बन जाए, तो आप उसके “हां” का इंतज़ार करने लगते हो।
मैंने खुद से लड़कर खुद को इस जवाब के लिए तैयार किया कि—
"एक दिन वो कहेगा कि मैं लौट रहा हूं, और तब तुम मेरा इंतज़ार कर लेना।"
पर उसने ऐसा कभी नहीं कहा।
और अब मुझे लगता है—
मैंने फिर एक बार हार खा ली।
आज मैं एक ऐसी जगह पर हूं जहां
मैं उस इंसान का अतीत तक नहीं बन सकी, जिससे मैंने दिल से प्रेम किया।
वो इंसान कभी ये स्वीकार नहीं करेगा कि हम दोनों के बीच कुछ था।
कोई लड़की शायद इसलिए नहीं रोई होगी कि वह अपने प्रेमी का अतीत भी नहीं बन पाई।
एक झूठ—जो उस औसत लड़की का इकलौता सच बन जाता है—पूरी जिंदगी उसका पीछा करता है।
उसके आगे, पीछे, साथ, चारों तरफ…
अब मुझे नहीं पता कि मैं इस सच्चाई से कैसे मुक्त होऊंगी।
अगर आज कोई कहता है कि मैं सुंदर हूं,
तो मुझे लगता है—
"या तो वह सिर्फ शरीर से आकर्षित है, या फिर उसे मुझसे सहानुभूति है।"
अगर कोई मेरी तारीफ करता है, तो लगता है—
"इस इंसान को मुझ पर तरस आ गया होगा।"
मुझे अपने ऊपर सबसे ज़्यादा तब गुस्सा आता है जब कोई मुझसे सहानुभूति दिखाता है।
मेरे अपने लोग, मेरे परिवार के लोग… जब मुझसे प्यार जताते हैं,
तो भी मुझे लगता है कि
"शायद उन्हें लगता है कि ये लड़की कुछ खास नहीं कर पाएगी, इसलिए इस पर थोड़ा तरस खा लो।"
मुझे लगता है कि मैं किसी के प्यार के काबिल नहीं हूं।
मैं किसी भी चीज़ के लायक नहीं हूं।
कुछ भी करने के काबिल नहीं हूं।
और मैं नहीं जानती कि इस औसत लेख का क्या होगा।
या मेरी जिंदगी का।
पर मैं सिर्फ इतना जानती हूं—
मैं औसत रहते हुए मरना नहीं चाहती।




